बिइस्मिहि तआला
शुरु करता हूँ मैं अल्लाह के नाम से,
जो निहायत रहम वाला मेहरबान है।
(A UNIQUE FAMOUS RESIDENTIAL INSTITUTION OF ITS
KIND OF MODERN AND ISLAMIC EDUCATION)
उलूल अज़माने दानिशमंद जब करने पे आते हैं"
समुंदर पाटते है कोह से दरिया बहाते हैं।
हर दौर में क़ौम का दर्द रखने वालों ने मुसलमानो में जहालत के घटा टोप अंधेरे को दूर करने, मर्द व औरताें में तालीम को आम करने, नई नस्ल को दीन से करीब, दीन पर क़ायम रखने के लिए दीनी मकातिब व मदारिस और दीन के साथ साथ असरी तालीम की जरूरत को सख्ती से महसूस किया है । दीन से, कौम से मुहब्बत करने वालों ने लोगों की सारी मुखालफतों के बावजूद मनफी हालात में भी अपने- अपने तौर पर अपने - अपने सूबों, शहरों, देहातों, गली कूचों, में दीनी मकातिब की शक्ल में हो या दीनी व असरी तालीम के साथ हो, तालीम को आम करने के लिए बड़ी - बड़ी कुर्बानियाँ देकर ही छोटे - बड़े अदारे क़ायम किये थे जिस की एक तारीख है ।यही बुनियादी, दीनी व इस्लामी तालीम की वजह से आज मुल्क व बैरूने मुल्क में मुसलमान अपने मज़हब पर क़ायम हैं और उन की मस्जिदें भी आबाद हैं । खुदा जाने ऐसे- ऐसे दीन के किले अल्लाह के बन्दों ने मुल्क में कहाँ कहाँ क़ायम कर दिये हैं।
बक़ौल अल्लामा इक़बाल रह0"।
"इश्क ने आबाद कर डाले है दश्त-ओ-कोहसार"
चुनाँचि इसी अहसास के तहत, एक पसमांदा, हर लिहाज से गैर आबाद, पिछडे हूए दहक़ानी इलाका में तालीम को आम करने के लिए बानी-ए -यतीमखाना ने लड़को का यतीमखाना, , की बुनियाद डाली थी । ऐसे तारीक दौर में उन का यह मुसतहसिन अक़दाम "बियाबाँ की शबे तारीक में क़ंदीले रहमानी" के मिसदाक़ था .
जिला गया के एक छोटे से गाँव कोलौना के एक मर्द मोमिन, मर्द मुजाहिद जनाब इनायत खाँ रह0 ने लोगें की शदीद मुखालफतों के बावजूद अपने वक़्त के मनफी हालात में जबकि आज की बनिस्बत सहूलतें कम और मुश्किलात बहुत ज्यादा थीं । अल्लाह पर तवक्कुल करते हुए उस के नाम पर अक्तूबर 1917 ई0 में एक उस्ताद जनाब सैयद मोहम्मद नाजिर हुसैन मरहूम और दो यतीम बच्चों (1) मों0, कौसर, कोलौना, चेरकी गया, (2) सैयद मो0 इस्माइल, झरहा, चेरकी गया, से आठ आने माहवार किराया की कोठरी और तीस (RS 30/) रू0 की मामूली रक़म से एक छोटी सी इल्म की एक शमा रौशान की थी, एक छोटा सा लेकिन एक बड़े दरख्त का बीज बोया था।, एक पौधा लगाया था जिस की एक लम्बी दास्तान-ए-जद्दो जहद है, जो ” यतीमखाना की कहानी, बानी-ए-यतीमखाना की ज़बानी, ” और ” एक बूढ़े की सरगुज़श्त में पढ़ कर मालूम की जा सकती है। अदारह की मुखतसर दास्तान यह है कि 1917 ई0 से 1951 ई0 तक यानी मुसलसल 34 साल तक अदारह अपना वजूद बरकरार रखने के लिए जंग लड़ता रहा । 1952 ई0 में इसे नई जिन्दगी मिली। बक़ौल शायर .
"बावक़ार रहने को, बरकरार रहने को
जंग भी ज़रूरी है, सुलह भी मुनासिब है"
उस वक्त इलाके के रईसों, जमींदारों के साथ साथ गैर मुस्लिम हज़रात व सरकारी अफसरान वगैरह ने भी भरपूर मुखालफत की थी और अदारह की तालीमगाह को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए कोई कसर न उठा रखी थी । 1933 ई0 में एक वक्त ऐसा भी आया कि अदारह में ताला लगा देना पड़ा और 1941 ई0 में मुखालिफतों और साजिशों से तंग आकर बानी-ए-अदारह ने यतीमखाना को चेरकी, से हटा कर ” भदिया या” गया ” शहर में मु़ंतक़िल करने का फैसला कर लिया था । अदारह की मुखालफत में एक मुसलमान ज़मींदार, अदारह की मस्जिद के मुद्दे मुकाबिल मन्दिर बनाने के लिए भी तैयार थे । बाज़ ज़मींदार का कहना था कि ” सब को आप पायजामा पहना देंगे तो मेरा काम कौन करेगा ? और आप से यह काम न हो सकेगा । बत्ती तक नहीं जलेगी, क़ौम की हँसी कराएँगे । लेकिन तालीम को आम करने के लिए बानी-ए-अदारह ने अपना जान-ओ-माल, ज़हन-ओ-दिमाग सब कुछ दाँव पर लगा दिया था । बकौल शायर .
"उन्हे यह ज़िद है कि छाई रहे चमन पे खज़ाँ
और मुझे यह ज़िद है कि बहारें ही ला के छोडूंगा."
1938 ई0 ही से बानी-ए-अदारह लड़कियों में भी तालीम को आम करने के लिए बहुत फिक्रमंद थे । 1938 ई0 ही के खत की बुनियाद पर ” मुस्लिम लड़कियों का यतीमखाना गया ” वाकेअ कोलैाना की बुनियाद पड़ी थी .
बानी-ए-अदारह के अखलास-ओ-अमल की बरकत का नतीजा और फ़जले खुदावंदी है कि आज सौ (107)साल हो जाने पर भी अदारा अपना वजूद बरकरार रखे हुए है। और 1917 ई0 में खुदा के इंकार पर क़ायम होने वाला मुल्क रूस सत्त्र(70) साल होते ही ज़मीं बोस हो गया है । अब यह अदारह ढाई ( 2,5) ऐकड़ ज़मीन पर मुहीत है, जो शानदार दुमंजिला इमारत के एलावह एक मौलाना मोहम्मद अली जौहर एकेडमी की खुशनुमा इमारत, एक शानदार और पुरशिकोह व पुर जलाल मस्जिद और दो खुशनुमा हरे-भरे पार्क के साथ नज़र आता है । गोया ” रेगिस्तान में नखलिस्तान ” के मिसदाक़ है"।
बानी-ए-यतीमखाना इस्लामिया गया ने जो ख़्वाब सौ (100) साल क़बल सूबा बिहार के पसमांदा जिला गया के पसमांदा इलाका ” चेरकी ” में एक चिराग़ रौशन कर के तालीम को आम करने का देखा था, उस की ताबीर, मुस्लिम लड़कियों का यतीमखाना गया ” वाकेअ कोलौना, इलाका के मुसलमान और हिन्दुओं का स्कूल, पाठशाला, मदरसा और दूर -दर तक गाँव के दीनी मकातिब की शकल में ज़ाहिर हुआ । आज चेरकी की सरज़मीन से इल्म की ऐसी किरणें फूट रही हैं जिस से पूरा इलाक़ा उजाला है और एक छोटी सी जगह चेरकी में बएक वक्त कई बड़े -बड़े अदारे मिल्लत के फ़ायदे के लिए चल रहे हैं । ग़र्ज एक चिराग से बहुत से चिराग रोशन हो गए हैं । यह अदारह दीनी व दुनियावी तालीम के इमतेज़ाज का चमन सदा बहार है और बिला मुबालगा़ सूबा बिहार का कोना कोना इस से मनव्वर और रौशन है ।
बानी-ए-अदारह के गाँव का एक बच्चा जिस का नाम मोहम्मद मुरसलीन था, एक मदरसा में बानी-ए-अदारह ने दाखिला के लिए भेजा, जहाँ के बारे में मशहूर था कि खाना भी मुफ्त मिलता है । मगर वहाँ ऐसा नहीं था । बानी-ए-अदारह मजबूर हो कर उस बच्चा को अपने साथ कलकत्ता ( CALCUTTA) ले गए । जहाँ दो महीने की परेशानी के बाद उस का दाखिला ” यतीमखाना इस्लामिया कलकत्ता, ( THE CALCUTTA MUSLIM ORPHANAGE) में हुआ। इन्हीं मुसीबतों के बाद उन्हाें ने मुसम्मम इरादा कर लिया कि बरसरे रोजगार हो जाने के बाद अपने जिला की इस कमी को पूरा करूँगा।