तसवीर
एनायत खाँ
(ENAYETH KHAN )
बानी
(FOUNDER)
यतीमखाना इस्लामिया गया
(THE GAYA MUSLIM ORPHANAGE )
1885 ई0 ‌- 1970 ई0

( एक छोटा आदमी बड़ा काम )

बानी-ए-यतीमखाना इस्लामिया गया, जनाब एनायत खाँ के वालिद का नाम मोहम्म्द यासीन खाँ था जो जिला गया, कसबा चेरकी के करीब कोलौना नामी एक छोटे से गाँव के रहने वाले थे । शुरू में घर की माली हालत बहुत ही नाज़ुक थी ।बानी-ए-अदारह के वालिद साहब कलकत्ता गए और वहाँ के बहरी जहाज़ के बन्दर गाह, (Sea Port) पर काम करते - करते सरदार हो गए । बहरी जहाज़ में कई सालाें के बाद काम करना छोड दिया और कलकत्ता के सबसे बडे़ होटल ग्रांड होटल ( Grand Hotel, Culcutta,) में आ कर दरबानी शुरू कर दी।जहाँ अँगंरेज़ो के दौर में उस होटल में हिन्दूस्तानियाें का दाखिला ममनुअ था। और अपने बेटे एनायत खाँ (बानी- ए-यतीम खाना ) को बचपन ही में उसी होटल में बैरा ( WAITER ) के काम पर लगा दिया था । उनके वालिद अच्छा खाने,पीने और उम्दा कपड़ा पहनने के बहुत शौकीन थे, लेकिन उन्हें अपने बच्चों को तालीम देने का शौक़ मुतलक न था।
            बानी-ए-यतीमखाना (एनायत खाँ रह0) की पैदाईश 1885 ई0 में कलकत्ता में हुई लेकिन यह मुस्तनद तारीख पैदाईश नहीं है । लोगाें से, पूछ ताछ, कर, लोगो से मालूम कर के और नौकरी की उम्र के हिसाब से अन्दाज़ह लगा कर लिखी गई है । उस वक्त किसी को यह एहसास नहीं हुआ होगा कि गरीब और मामूली गाँव, मामूली घराने का बच्चा आगे चल कर इतना बड़ा अज़ीम और तारीखी कारनामा अंजाम देगा और तारीख का रूख मोड़ देगा ।
            आप ( एनायत खाँ रह0 ) की पैदाईश कलकत्ता में ऐसी हालत में हुई कि लोगाें ने आप को मुर्दा समझ कर मिट्टी की हाँडी में डाल कर एक गोशा में इस गर्ज से रख दिया था कि सुबह तुलूअ होने पर सुर्पद .ए .खाक कर दिया जाएगा । आप की पैदाईश की खबर बहरी जहाज में काम करने के दौरान आप के वालिद साहब, जो बहरी जहाज़ के बन्दरगाह (SEAPORT ) में मजदूरों के सरदार ( HEAD LABOURER ) थे को पहुँची, वह सुन कर बुहत ही उदास और मग़मूम सूरत हो गए, चूँकि इस से कबल उन के दो लडके इंतकाल कर चुके थे, बहरी जहाज के अँगंरेज़ मालिक से छुट्टी लेने गए। तो उस ने उदास चेहरा देख कर वजह पुछी ? फिर मशविरा दिया कि बच्चा की नाफ को गर्म पानी में डाल दो, अगर जान बाकी होगी तो बच्चा यकीनन गर्मी से चिल्ला उठे गा, वरना खामोशी की सूरत में मुर्दा समझना, आप के वालिद साहब ने अँगंरेज़ मालिक की बताई हुई इस तदबीर पर अमल किया खुदा को बचाना और अज़ीम काम लेना मंजूर था, बच्चा वाक़ई गर्मी से चीख उठा । अब लोगों में खुशी की एक लहर दौड़ गई । बानी-ए-अदारह ने बीस दिनाे तक माँ का दूध नहीं पिया, दूध रूई से भिगो कर मुहँ में दिया जाता था, चूँकि बहुत ही कमज़ोर और नहीफ थे, उन्हें दूध के अलावा शहद या जलेबी का रस दिया जाता था । दो महीने तक लगातार टोपी पहने रहने की वजह से सिर में चिंटियों ने अपना घर बना लिया था। सिर में चिंटियों के काटने का ऐसा निशान पड़ा कि मरते दम तक खतम न हो सका ।
            उन्हें बचपन ही से पढने का बहुत शौक़ था, और वालिद तालीम के सख्त मुखालिफ थे। आप को अंग्रेंजी से काफी रगबत थी। अंग्रेंजी लफ्जाे को जहाँ तहाँ से देख कर नकल कर लिया करते थे और होटल में जो अँग्ंरेज़ खाने के लिये आया करते, थे उनके खाने की मेज के पास खड़े हो जाते और अपना लिखा हुआ दिखाते । लेकिन बे रब्त लिखाई की वजह से अँगंरेज़ कह दिया करते थे कि यह कुछ नहीं हुआ । इतेफाक ए वक्त कहिए कि ग्राँड होटल के पास मुक़ाम नवादा ( जिला गया ) के एक उस्ताद मास्टर अब्दुस समद साहब मरहूम रहा करते थे । बानी-ए-अदारह ने अपने वालिद से छिप कर उन से मुलाक़ात की और कहा कि मुझे पढ़ा दिजिए । पढ़ाने की जो उजरत मांगिऐगा, मैं दूँगा।
            उस्ताद ने जवाब दिया लिख कर भी देंगे, लिखवाएँगे भी, पढ़ाएँगे भी और ज़बानी सुनेंगे भी, ग़र्ज जो कुछ पढाऊँगा, वह दूसरे दिन याद करके सुनाना होगा और दस रूपया माहाना पढ़ाने का भी लूँगा,और अगर याद करके नहीं आए तो मार कर भगा दूँगा । उन्हें ने वालिद की इजाज़त के बगैर पढ़ाने की फीस देने और उनकी हिदायत पर अमल करना मंज़ूर कर लिया ।
            चुनाँचि होटल की डयूटी के बाद फुरसत के औकात में वालिद साहब से नज़रें बचा कर पढ़ने के लिए निकल जाया करते थे मफलूकुल हाली के उस दौर में उस्ताद की फीस ज़ारिया -ए- आमदनी से बहुत ज़्यादा थी, यह फीस आती कहाँ से ? यह भी एक मसला था । उन्होंने पढ़ने के शौक़ में उस्ताद से वादा कर लिया था । उस्ताद जो भी सबक़ देते यह पाबंदी से याद कर लेते, और उस्ताद को बचपन ही में अपने अखलाक़-व-किरदार और उन की खिदमत से इतना मुतासिर किया कि उस्ताद ने पढ़ाने की उजरत लेने से इंकार कर दिया । वह उनका सारा काम मसलन बरतन माँझनाा, कपड़ा धोना, चूल्हा जलाना,सिल पर मसाला पीसना वग़ैरह बग़ैर कहे कर दिया करते थे । इस वजह से उस्ताद ही उन के गरवीदा हो गए । अक्सर आप कहा करते थे कि मैं ने शुरू में उर्दू, अँग्ंरेज़ी, जो भी सीखी उनहीं उस्ताद की बदौलत सीखी थी। उन के इस एहसान का तज़किरा बड़ी मुहब्ब्त व अक़ीदत से अक्सर-ओ- बेशतर लोगाें को सुनाया करते थे।
            जब बानी- ए-अदारह की उमर सत्रह या अठारह साल की हो गई तो उन के वालिद साहब ने उन की शादी कर दी। एक दिन गुस्सा में आ कर घर से निकाल बाहर किया । उस वक़्त आप के वालिद कलकत्ता से ग्राँड होटल की नौकरी छोड़ कर मुस्तिकिल तौर पर गाँव में रहने लगे थे, और खेती कराने लगे थे । अब नाचार घर से आप तलाश मआश के लिए वालिद की बात पर खफा हो कर घर से निकल पडे़ और कलकत्ता के लिए राह-ए-सफर इख्तयार किया .
            जिस शौक और लगन से उन्होने इल्म हासिल किया वह लोगों के लिए काबिल-ए -तकलीद है।, उनके तालीमी हुसूल का वाक़िया बड़ा ही दिलचस्प है । वह पंद्रह या सत्रह बरस की उमर में अपने वालिद से किसी बात पर खफा हो कर कलकत्ता चले गए।, कलकत्ता में किसी अज़ीज़ के यहाँ क़याम किया, उस के बाद किसी मामूली सी नोकरी से काम की इब्तदा की चूंकि तालीम - याफता तो थे नही, कि किसी बड़े ओहदा पर फाएज होते।, वह नोकरी के साथ साथ अपने इल्मी जौक़ को भी पूरा करने में मुनहमिक हो गए । अपनी इस उमंग व आरजू़ को पूरा करने के लिए हर तरह की मेहनत व मशक्क़त झेलने के लिए अपने आप को आमादह कर लिया, और नंग-ओ-आर के मसनूअी चादर को उतार फेंका । काम से फुरसत पाने के बाद वह मुहल्ला की सड़को के गैस ( गैस से जलने वाली रोशनी STREET LIGHT) जो गैस बत्ती पहले कलकत्ता के सड़को पर रहा करती थी, की रोशनी से इस्तफादा करते, मुहल्ला या डेरा के तालीम याफ्ता हज़रात से अपनी इल्मी अड़चन और ना फहमी की उलझन को दूर करने में जरा भी झिझक न महसूस करते, एक मुद्दत तक इसी सब्र आज़मॉ मामूल पर कार बंद रहे । और इस जाँफशानी के नतीजे में इतनी इल्मी लियाक़त पैदा कर ली कि बा आसानी उर्दू, फारसी और अँग्ंरेज़ी किताबों को ब खूबी समझ सकते थे । साथ ही उन ज़बानों में अपने दिल की आवाज़ और माफी-उज- ज़मीर को तहरीरी तौर पर पेश करते थे। अपने एहसासात को बड़ी रवानी और सलीक़ा से बोलते और बयान करते थे ।
           आप के अन्दर दीनी रूजहान भी खातिर ख्वाह था । यही वजह है कि कुरान शरीफ के कई पारे हिफ़्ज़ कर लिए थे । जब दिल में कुरान शरीफ हिफ्ज करने का जज़्बा पैदा हुवा तो तकरीबन निस्फ कुरान शरीफ हिफ़्ज़ कर लिया था। और रोज़ाना कुरान का मुतालआ मानी-व-मफहूम के साथ किया करते थे । अरबी ज़बान और अरबी ग्रामर भी सीखी थी, और घर में बच्चियों को पढ़ाया करते थे .
           बानी-ए-अदारह कहा करते थे कि बचपन में बुजुरगों से अकसर सुनता था कि जो अँग्ंरेज़ी (ENGLISH) पढ़ेगा वह मुँह से खून उगलेगा, यानी टी॰ बी॰ ( T. B.) हो जाए गी और उस दौर में बहुत सारे लोग अँग्ंरेजी पढ़ना कुफ्र ख्याल करते थे । लेकिन वह कहा करते थे कि मैनें बचपन ही से सोच रखा था कि चाहे खून ही क्यूँ न उगलना पड़े मैं अँग्ंरेज़ी ज़बान ज़रूर सीखूँगा। आप ने अँग्रेजी की तालीम हासिल करने के लिए एक अँग्रेज़ की खिदमात भी हासिल की, और वह अँग्ंरेज़ी के एवज़ उस अँग्ंरेज को उर्दू पढ़ाया करते थे । रास्ता चलते वक़्त शहर में सड़कों के दोनों जानिब आवेजा़ँ अँग्ंरेजी साइन बोर्ड पर लिखी अबारत या दीवार पर लिखी हुई या अखबार में कोई अंजानी चीज़ देखते तो नोट कर लिया करते थे । और घर आ कर डिक्शनरी ( DICTIONARY ) में उस के मानी व मफहूम तलाश किया करते थे । यह भी एक तरीक़ा था अपनी सलाहियत को बढ़ाने और निखारने का । जो उन्हाें ने अपना लिया था वह कहते थे कि अगर आदमी जिस किसी चीज में लगन पैदा करे गा तो वह जल्द सीख जाएगा । ग़र्ज उन्होनें न कभी किसी मदरसे का मुँह देखा और न किसी मदरसे में तालीम हासिल की थी, न किसी दानिशगाह का फैज़ पाया था।उन्हों ने अपने फितरी जौक़ व मुतालआ से अपनी सलाहियत को बढ़ा लिया था। वह दूसरों को अपनी ज़िन्दगी के तजुरबात अक्सर बतलाया करते और अपनी तरक्की की कहानी सुनाया करते थे कि हमारी दास्तान-ए-हयात सुन कर उस से सबक़ हासिल करो ।
           आप ने बहुत ही मामूली सी मुलाज़मत से अपनी ज़िन्दगी का आगाज़ किया, लेकिन अपनी नज़र हमेशा बुलन्द रखी, तरक्की के लिए जाँ फशानी करते रहे।
           जहाँ भी काम करने के लिए जाते, अपने तास्सुरात दूसरे लोगों के ज़हन-व-दिमाग पर छोड़ आते । बानी-ए-यतीमखाना के मुलाज़मत से रिटायर्ड होने का साल 1943 ई0 था । उनहों ने 1942 ई0 ही में एक साल क़बल ही अपनी मरजी से रज़ाकाराना (Voluntarily) तौर पर घर पर रह कर यतीमखाना की खिदमत का जज़्बा ले कर मुसतअफी हो गए । मेडिकल रिपोर्ट यह कह कर हासिल की थी कि हमारी तबियत अन्दर से ठीक नहीं रहती है ।,, कलकत्ता फायर बिग्रेड के ऑफिस के अफसरान और दूसरे स्टाफ कोई भी यह नहीं चाहते थे कि वह एक साल कबल ही ऑफिस छोड़ कर घर चले जाएँ । उन के इस फैसले से कोई भी मुत्तफिक नहीं था । मगर वह किसी की नहीं सुने और घर चले आए और फिर दूबारा 1943 ई0 में अपनी अल विदाई (FAREWELL) तक़रीब में कलकत्ता जा कर शिरकत की थी ।
           बानी-ए-यतीमखाना ने जिला गया में कोई यतीम खाना न रहने की वजह से यह सोच रखा था कि बर सरे रोजगार हो जाने के बाद अपने जिले की इस कमी को पूरा करूँगा। पहले (यतीम बच्चे) तालीम हासिल करने के लिए “ यतीमखाना इस्लामिया कलकत्ता, जाया करते थे । 16 जून 1916 ई0 में लिखे खत से पता चलता है कि नौकरी 1916 ई0 ही में किसी महीने में लग गई थी और 1916 ई0 ही में बर सरे रोज़गार हो जाने के बाद उन्हाें ने अक्तूबर 1917 ई0 में लड़को के यतीमखाना, की बुनियाद डाली थी। मौजूदा यतीमखाना इस्लामिया गया, इन्ही मंसूबे का अक्स जमील है
            वफात बानी-ए-यतीमखाना की कोशिशों से यह बंजर ज़मीन ज़रखेज़ हो गई, और यह एलाका जंगल से मंगल में बदल गया, जहाँ पहले लोग गया शहर से हिरण का शिकार करने आया करते थे, वहाँ इल्म की शमा रोशन हो गई। बानी-ए-यतीमखाना की नेक नियती और उलूल अज़मी कामयाब हुई । उनहाें ने निहायत ही सब्र-औ-इस्तक़लाल और इस्तेक़ामत व पामर्दी से मुक़ाबला किया । जब अदारह तेज़ी से तामीर-ओ-तरक्क़ी की मंजिलें तय करने लगा उसी क़दर तेज़ी से आप की बिसात-ए-हयात भी सिकुड़ने लगी । उन्हाें ने वफात से तक़रीबन पाँच साल क़बल “ यतीमखाना की तारीख “ यतीमखाना की कहानी बानी -ए-यतीमखाना की ज़बानी, लिखवाई और बिल आखिर 30 सितम्बर 1970 ई0 को तीन बज कर पन्द्रह मिनट पर ( सुबह सादिक़) अपने आबाई मकान कोलौना में 85 साल की उम्र में दाअी-ए-अजल को लब्बैक कहा और और दिल में यह आरज़ू लिए हुए अपने मुहसिन-ए-हकीक़ी से जा मिले।

फला - फूला रहे या रब, चमन मेरी उम्मीदाें का
जिगर का खून दे दे कर, ये बूटे हम ने पाले हैं .



           

आखरी आरामगाह   बानी-ए-यतीमखाना मस्जिदे यतीमखाना के ज़ेरे साया मस्जिद के सदर दरवाज़ा के दाएँ जानिब और मस्जिद की सीढ़ी से उत्तर जानिब मदफून हैं।

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