मअमारान-ए-यतीमखाना
(BUILDERS OF THE ORPHANAGE)

इनायत खाँ रह0 बानी व खादिमे ला सानी :- नाजिम बराऐ तवील मुद्दत जिन्होंने यतीमखाना के हासिदों व मुखालिफों के हर चैलेंज का मुक़ाबला निहायत सब्र ओ इस्तकलाल, इस्तेक़ामत व पा मर्दी से किया और अपना जान ओ माल ज़हन-ओ-दिमाग और सारी सलाहियतों को दाँव पर लगा दिया था .

हक़ीम मोलवी मोहम्मद इब्राहीम साहब वल्द हक़ीम मोलवी मोहम्मद इस्माइल साहब बनारसी मरहूम मुक़ीम कलकत्ता : अदारह के सबसे पहले मुहसिन थे जिन्होनें सब से पहले खुद चंदा दिया और जब तक ज़िन्दा रहे खुद भी चन्दा देते रहे और बराबर दूसरों से दिलवाते रहे ।

सैयद मोहम्मद नाजिर हुसैन साहब मरहूम :- सब से पहले मुअल्लिम (उस्ताद) जिन्हानें ने बिला मुआवजा दो महीने तक मुअल्लिमी का काम अंजाम दिया और फिर ट्रेनिंग पर चले गये और ट्रेनिंग के बाद फिर दुबारा आए और सेकेन्ड मोअल्लिम की हैसियत से 1922 ई0 मे माहाना नौ (9) रूपये पर मुदर्रिस दोम की हैसियत से बहाल हूए फिर 1941 ई0 में मुदर्रिस अव्व्ल हो गए ये और जूलाई 1948 ई0 में माहाना तनख्वाह पच्चीस (25) रूपये हो गई थी। उन्होने जून 1949 ई0 तक यतीमखाना की खिदमत कि थी । और बहुत ज़माने तक खुलूस व मुहब्बत के साथ तालीम के अलावा दूसरे कामों को भी खुश असलोबी से अंजाम देते रहे। यह मिसाली उस्ताद थे ।

मोलवी मोहम्मद याकूब खाँ साहब मरहूम मौजा सलीम पुर, डाकखाना,हरदाउन, जिला गया,मुक़ीम नीमा चेरकी गया :- सैयद मौ0 नाजिर हुसैन साहब पहले मुअल्लिम (उस्ताद) के ट्रेनिंग पर चले जाने के बाद दूसरे सेकेंड मुअल्लिम, मोलवी मोहम्मद याक़ूब खान साहब, मुअल्लिमी के ओहदे पर बहाल हुए । तालीम के अलावा सारे काम भी अंजाम दिया करते थे । मसलन चन्दों का फराहम करना, मकान के तामीराती कामों की देख भाल करना वगैरह सब शामिल था । 1922 ई0 में वह भी ट्रेनिंग पर चले गए ।

सैयद उमर दराज साहब मरहूम मौजा धरहरा, बिहार शरीफ, मुकीम कोलौना :- सदर मुदर्रिस (अव्वल) पुराने मैट्रिक पास जिन्होनें 1935 ई0 से आखिर वक्त तक सूखी रोटी, नमक चावल, और लाल मिर्च खा कर अदारह को सीँचा । यह भी मिसाली उस्ताद थे । तालीम के अलावह यतीमखाना के दूसरे छोटे बड़े हर काम को खुश असलोबी से अंजाम दिया करते थे ।

डाक्टर अबूल खैर साहब ढोड़हा, गया, मुक़ीम शहर गया :-ता हयात शरीक नाजिम और खिदमते खल्क़ के नमूना डाक्टर जिन्होंने मुफ़्त इलाज करने का उसूल बना लिया था। और जो यतीम बच्चा ज़्यादा बीमार हो जाता तो खुद उसे देखने,गया शहर से ग्यारह मील दूर "चेरकी" अदारह में पहुचँ जाते और ज़रूरत पड़ने पर अपनी गाड़ी पर गया शहर साथ लेकर वापस लौटते और वहीं अपने दवाख़ाने के कमरे में इलाज के लिए रखा करते थे। वह खिदमत-ए-खल्क के नमूना डाक्टर थे ।

ख्वाजा गयासुद्दीन साहब मरहूम, पंजाब मोटर सर्विस गया :-हर हाल में जिन की मदद शामिले हाल रही और 1948 ई0 में पंद्रह हजार रू0 की लागत से अदारह में आलीशान तीन गुम्बदाें वाली हंडेदार मस्जिद तामीर हूई थी जिस की तामीर मे तकरीबन चार साल लगे थे, जो अदारा में आज भी मोजूद है। हिन्दुस्तान की सरज़मीन से उन के चले जाने और उन की सारी दौलत खत्म हो जाने पर भी उनकी यही एक निशानी बाकी रह गई जो दौलत मंदो के लिए निशाने राह है ।

अब्दुल्ला मियाँ साहब मरहूम, चेरकी, गया :- दूसरे नाएब नाज़िम व खाज़िन अदारह के पुराने मुहसिन थे । अदारह के दुशमन के यहाँ नौकरी करने के बावजूद यतीमखाना का काम करने के लिए हर वक़्त तैयार रहा करते थे ।

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